नई दिल्ली। गंगा के किनारे बसे उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में चुनार किला न सिर्फ एक प्राचीन दुर्ग में है, बल्कि यह भारत के गौरवशाली इतिहास का जीवंत साक्षी भी है। वाराणसी से मात्र 34 किलोमीटर दूर स्थित यह किला, कैमूर पर्वतमाला की उत्तरी छोर पर चट्टानी पहाड़ी पर खड़ा है, जो गंगा नदी के मोड़ पर अपनी रणनीतिक मजबूती से सदियों से राजाओं की नजरों में रहा। लेकिन इसके पत्थरों में सिर्फ युद्धों की कहानियां ही नहीं, बल्कि तिलिस्मी गलियारों, छिपे खजानों और अलौकिक रहस्यों की भी गूंज है।
हाल के वर्षों में पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रयासों के बीच, यह किला फिर से चर्चा में है – एक ऐसी जगह जहां इतिहास और कल्पना की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं। किले को दिव्य पहलुओं से जोड़ने वाली कई किंवदंतियां हैं। ऐसी ही एक कहानी राजा बलि से जुड़ी है। विष्णु भगवान, एक ब्राह्मण के वेश में बलि के सामने प्रकट हुए और उन्होंने तीन पग भूमि दान में मांगी। उदार राजा सहमत हो गए। विष्णु ने अपना पहला कदम चुनार किले की पहाड़ी पर रखा और वहीं अपने पदचिह्न (पैरों के निशान) छोड़ दिए। तभी से यह स्थान ‘चरणाद्रि’ के नाम से जाना जाने लगा, जो वर्षों में संक्षिप्त होकर ‘चुनार’ बन गया ।
चुनार किले से जुड़ी पौराणिक कथाएं और किंवदंतियां
दूसरी किंवदंती उज्जैन के राजा विक्रमादित्य से संबंधित है । उनके भाई भर्तृहरि, जिन्होंने संन्यासी का जीवन अपना लिया था, चुनार की चट्टान के पास रहने लगे।

अपने भाई की स्थिति को समझते हुए, विक्रमादित्य ने चुनार का दौरा किया, और महान सिद्ध गुरु गोरखनाथ से अपने भाई का पता जानने के बाद, उनके रहने के लिए एक घर बनवाया। उन्हें आज जोगी संत भरथरी कहा जाता है। जिस काले पत्थर पर संत भरथरी रहते थे और प्रार्थना करते थे, उसकी आज भी पूजा की जाती है, ऐसा माना जाता है कि भर्तृनाथ अदृश्य रूप में किले क्षेत्र में विराजमान हैं।
एक तीसरी किंवदंती किले को राजस्थान के सुप्रसिद्ध राजा पृथ्वीराज से जोड़ती है। पृथ्वीराज ने इस बस्ती और कई पड़ोसी गांवों को अपने शासन के अधीन कर लिया था। राजा विक्रमादित्य से अकबर तक चुनार क्षेत्र में बसावट का उल्लेख 56 ईसा पूर्व से मिलता है, जब उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का काल था। लेकिन इसके बाद चुनार का सबसे पुराना दर्ज इतिहास 16वीं शताब्दी से शुरू होता है, जब 1529 में बाबर की फौज यहाँ पहुंची थी। उस समय उसके कई सैनिक मारे गए थे, जिनकी कुछ कब्रें आज भी चुनार में हैं।
1532 में शेर खान जो बाद में बंगाल पर विजय के बाद शेरशाह सूरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक महत्वाकांक्षी पठान था। उसका परिवार अफगान मूल का था, लेकिन उसका जन्म हरियाणा के आधुनिक नारनौल जिले में हुआ था । उसने दिल्ली का राजा बनने की महत्वाकांक्षा के साथ चुनार किले पर कब्ज़ा कर लिया।
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